सच और क्झूठ की पैरवी


जीवन में सच और झूठ की पैरवी –

           सबसे पहली बात तो यह है कि आदमी के जीवन में आनन्द के क्षण कम हो गये हैं ,जीवन दुख की एक लम्बी कहानी हो गई है । अगर जीवन में इतना दुख हो तो इसका परिणॉम भी दिखता है-और फिर वह दुखी आदमी दूसरे को भी दुख देने के लिए आतुर हो जाता है ।ऐसा ही होता है जो मेरे पास है वही तो मैं दूसरे को दे सकता हूं । यदि मैं दुखी हूं तो मैं दुख दे सकता हूं । हम सब दुखी हैं चेहरे पर दिखाई देने वाली मुस्कराहटें झूठी है, सच तो यह है कि हमने मुस्कराहटों का आविष्कार भीतर के दुख को छिपाने के लिए ही किया हुआ है । हम केवल दिखाने के लिए हंसते हैं ।

           एक बार एक सम्राट बुद्ध से मिलने गया और उसने बुद्ध से पूछा,आप कभी हंसते भी हैं यै नहीं ?तो बुद्ध ने कहा कि भीतर दुख ही न रहा तो अब हंसी की भी कोई जरूरत नहीं रही,क्योंकि हंसी दुख को छिपाने के लिए ही थी ।हम हंसते थे ऊपर से ताकि भीतर का दुख भूल जॉय ।

            एक बार नीत्से ने किसी ने पूछा था कि तुम बहुत हंसते हो,बहुत खुश मालूम पडते हो । नीत्से ने कहा,यह बात ही मत छेडो । मैं तो इसलिए हंसता रहता हूं कि कहीं रोने न लग जाऊं । बस फूर्सत नहीं रहनी चाहिए ।अगर बाकी समय मिल गया तेो बीच में रोना भी आ सकता है ।आंसू न आये,इसलिए हंसने में शक्ति और समय लगता रहता है ।

            शायद आपको पता हो कि जैसे-जैसे मनुष्य का दुख बढा है,एक अद्भुत चीज बढी है, वह है मनोरंजन के साधन । सुखी आदमी के लिए मनोरंजन नहीं चाहिए ,वह इतने सुख में होता है कि उसे मनोरंजन के साधनों की जरूरत ही नहीं पडती । मनोरंजन चाहिए दुखी आदमी के लिए । साधनों की जरूरत पडती है जब सुखी नहीं रहता ।शराब की जरूरत है, सेक्स के नयें-नयें आविष्कार दिखते हैं ।फइल्में देखनी पडेंगी,टीवी,और रेडियो खोजना होगा,संगीत की खोज जाना होगा ,लेकिन इनसे भी दुख दूर नहीं हो पाता है,सब तरह की हंसी के बाद भी यह दुख मिटता नहीं है,वह अपनी जगह रह जाता है, और जब भीतर बहुत दुख आ जाय तो हम स्वभावतः दूसरे को दुख देने में रस लेने लगते हैं ।

            जब कोई आदमी आनंदित होता है,तो वह दूसरे को सुख देने लगता है ।आनंदित आदमी की एक कसौटी है कि अगर आप दूसरे के सुख में सुखी होते हैं तो आप आनंदित आदमी हैं । और यदि आप दूसरे को सुखी करने में सुखी हो सकें तो भी आप आनंदित आदमी हैं । और अगर आप दूसरे को दुख में देखकर रस पाते हैं और दूसरे को सुख में देखकर दुख पाते हों तो आप दुखी आदमी हैं ।

            आदमी की मनोदशा अद्भुत है । जब वह दूसरे को दुख में देखता है तो बहुत सहानुभूति प्रकट करता है और उसे ऐसा भ्रम होता है कि दूसरे के दुख में वह दुखी हो रहा है । लेकिन कभी आपने खयाल किया होगा कि जब कोई आदमी किसी को प्रति सहानुभूति प्रकट करता है तो उसकी आंखों में एक रस भी दिखाई देता है कि वह बहुत आनंद भी ले रहा है ।असल में दूसरे के प्रति सहानुभूति दिखाने में एक बडा मजा है। क्योंकि जिसके प्रति हम सहानुभूति दिखाते हैं वह नीचा हो जाता है,और हम ऊपर हो जाते हैं । लोग तो इसी तलाश में रहते हैं कि कब आपको सहानुभूति दिखलाने का मौका मिले ।

            अगर आपकी मकान में आग लग जाती है तो लोग सहानुभूति दिखाने आ जायेंगे। लेकिन ये वे लोग हैं कि अगर आपने बडा मकान बना दिया होता तो ईर्ष्या से भर गये होते । अजीव गणित है ये । जो लोग मकान के बडे होने से ईर्ष्या से भरते थे,वे मकान को जल जाने से दुखी नहीं हो सकते ! वे तो दुख दिखाते हैं,दुख प्रकट करते हैं,लेकिन भीतर उनके दुख नहीं हो सकता ।क्योंकि जब वे किसी के मकान को बडा होते देखकर खुश नही हुय़े थे,तो छोटा होते देख कर दुखी कैसे हो सकते हैं ?

            अपने जीवन का अनुभव है कि मैं अपने एक मित्र के घर में ठहरा हुआ था । उस मित्र का बहुत बडा मकान बनाया हुआ था । उनसे बात होती थी तो कुछ भी बात पर मकान शब्द बीच में आ जाता,कभी स्वीमिंग पूल तो कभी बाथरूम बीच में आ जाता । मैं दो दिन वहॉ रहा तो मुझे लगा कि इससे पहले भी इन्होंने मुझे मकान के सम्बन्ध में बात करने के लिए बुला था तब भी मकान की ही बात चली थी । अब भी मकान के ही सम्बन्ध में कह रहे हैं तो इसका मतलब यही हुआ कि शायद इनका मकान अधिक महत्वपूर्ण है ,जबकि वे मकान मालिक है,मकान मालिक का महत्व कम है मकान की तुलनां में ।क्योंकि इन्होंने अपने सम्बन्ध में कोई बात ही नहीं की,मकान की ही बात की ।

            तीसरी बार उन्होंने मुझे अपने घर बुलाया मेहमान के रूप में, इस बार उन्होंने मकान की बात नहीं उठाई । मैं डरा हुआ था कि मकान की बात अभी आती है मगर मकतान नहीं आया ,सॉझ हो गई ,रात होने लगी,तो मैने उससे पूछा कि मकान के सम्बन्ध में बात कब होगी । तो उन्होंने कहा छोडिये जाने दीजिएगा?मैने सोचा कि बात क्या है,पता चला कि पडोस में एक दुर्घटना हो गई थी,और पडोस में एक बडा मकान बन गया था ।दूसरे दिन सुबह जब मैं उठा तो मैने देखा कि कारण क्या है । मैने उनसे मकान की बात की -तो कहने लगे आप मकान की बात मत करिये । जब से पडोस में ये मकान बना है तब से मन उदास हो गया है ,दुखी जैसा हूं । लेकिन कोई बात नहीं वर्ष दो वर्ष में इससे भी बडा मकान खडा कर लेंगे। तबतक मकान की बात करनी ठीक नहीं है ।  कुछ देर बात पडोस के मित्र आकर मुझे अपने घर ले गये, और अपने मकान की बात करने लगे । कहने का मतलव कि अगर पडोस में कोई बडा मकान बन जाय तो मुश्किल हो जायेगी ।

हम दूसरों के सुख में जरा भी सुखी नहीं हो पाते हैं । इसलिए दूसरे के दुख में जब हम दुख दिखलाते हैं तो वह झूठा होता है।

हम हंसते हैं,यह संसी दिखावे की हंसी है यह हमारा असली चेहरा नहीं है,बनाया हुआ चेहरा है,शायद जिसको हम भी नहीं पहचानते हैं ।

            एक मनोवैज्ञानिक का कहना है कि अगर एक कमरे में दो आदमी मिलते हैं तो दो आदमी नहीं मिलते हैं बल्कि कमसे कम छह आदमी मिलते हैं । अगर मैं आपसे किसी कमरे में मिल रहा हूं तो एक तो मैं हूं,और एक वह रहेगा जो मैं आपको दिखला रहा हूं,और एक वह रहेगा जिसे आप मुझे समझ रहे हैं ।आपभी तीन और मैं भी तीन छह आदमियों की बातचीत चलेगी । और असली आदमी तो बुत पीछे छूट जायेगा,नकली आदमी आगे आकर बात करते रहेंगे । न मालूम कितनी शक्लें बदलनी पडेगी । क्योंकि अपना दुख छिपाना पडता है । उसे उसे बताने का कोई अर्थ भी नहीं है । उसे किसी से कहने से कोई प्रयोजन भी नहीं होता ।

             एक यहूदी फकीर की लिखी कहानी है कि -मैं सारे लोगों को देखता हूं कि । रास्ते भर जो भी दिखता है हंसता हुआ दिखाई दोता है ,जो भी मिलता है मौज में दिखता है ,किसी से मैं पूछता हूं कि कहिए भय क्या हाल है ?वह कहता है सब ठीक है,बडे आनन्द है ।और मैं उनके भीतर झॉक कर देखता हूं तो दुख के सिवाय और कुछ नहीं है । फिर एक दिन मैंने भगवान से प्रार्थना की कि मुझसे नाराजी क्या है ?सारे लोग खुश हैं ,जिससे पूछो कहता है सब ठीक है। एक मैं ही हूं जो जो परेशान हूं । ईश्वर तुझसे यही प्रार्थना है कि किसी भी अनजान आदमी का दुख मुझे दे दे और मेरा दुख उसे दे दे मैं तैयार हूं । इस गॉव में किसी भी आदमी का दुख लेने को मैं तैयार हूं । मेरा दुख बदल ले ।

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